सोमवार, 6 सितंबर 2010
नागरिकता
यह आवाज आपके दिल से निकली है...इसलिए दिल को छूती है।
शनिवार, 4 सितंबर 2010
स्कूल या यातना गृह
अध्यापक वेश में ऐसे हिंसक अपराधी को तो सजा मिलनी ही चाहिए। स्कूल के नाम पर चल रही शिक्षा की फुटपाथी दुकानों पर भी नकेल कसे जाने की जरूरत है। पल्लू के इस स्कूल के मालिक (कहने के लिए स्कूल प्रशासन ) और मामला दर्ज करने की बजाय पीड़ित को ही धमकाने वाले पुलिस कर्मियों की भी सार्वजानिक निंदा करनी चाहिए। पल्लू एक छोटा क़स्बा है, यहाँ अभी भी सामाजिक निंदा दबाव बना सकती है।
अदालत में इस्तगासा तो करना ही चाहिए।
अन्य अभिभावकों को भी इस घटना के विरोध में खुलकर आना चाहिए, दोनों हाथो से पैसा लूटने वाले हमारे बच्चों पर हाथ भी उठायें..क्यों भाई? अगर स्कूल स्कूल ना रहकर यातना गृह बन जाये तो उसका बंद होना ही हितकर है।
मीडिया के साथियों को भी इस मामले को पुरजोर ढंग से उठाना चाहिए। अनिल जी ने यह मामला सामने लाकर बेहतर काम किया है.
गुरुवार, 2 सितंबर 2010
गीता क्या है
अर्जुन के तीन वाक्य
- मैं अपनों से कैसे लडूं?
- मेरा मोह दूर हो गया है
- हे जनार्दन जो तू कहे, करने को तैयार हूँ
जन्माष्टमी
बुधवार, 1 सितंबर 2010
किस काम का काम
जादूगर
एक दूसरा जादूगर है। वह लड़की को कोख में ही टुकड़े-टुकड़े कर देता है। फिर उन टुकड़ों को पोलिथीन की थेलियों में समेटकर दुनिया के तमाम दर्शकों की नज़र से हमेशा के लिए गायब कर देता है। लोग कहते तो इसे भी भगवान ही थे....पर.....
सोमवार, 30 अगस्त 2010
जातिरहित समाज
जिस समस्या की ओर आपने संकेत किया है, वह तो प्रतीक मात्र ही है। राजस्थान में आज भी ऐसे गावं मौजूद हैं जहाँ खुद को ऊँचा कहने वाली जातियों की खुली दादागिरी चलती है। मेरे एक अध्यापक मित्र को गावं वालों केवल इस बात पर धमकी दे कि वह हमारे ही दूसरे मित्र के यहाँ चाय पीने क्यों चला गया, जो कि कथित निम्न जाति का है।
एक शोध के सिलसिले में कई गावों में जाने का अवसर मिला। जो अनुभव हुए, जो बातें सुनने को मिली वे किसी भी सभ्यता के मुह पर तमाचे की तरह ही लगी।
- एक गावं में स्कूल की पानी की टंकी को इसलिए तोड़कर दुबारा बनाया गया कि कुछ दलित बच्चे उस पर चदकर पतंग लूटते पाए गए।
- स्वाधीनता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के बाद अभिभावकों को चाय पिलाने का समय आया तो दलित अभिभावकों से कहा गया कि वे आक के पत्तों का दोना बनाकर उसमें ची ले लें।
- मेरा एक मित्र बड़े गर्व से बताता है कि उसके गावं में आज भी कोई दलित उसके घर के सामने जूते पहन कर नहीं निकल सकता।
-दलित के घर शादी हो तो पहला ढोल उसके घर पर बजता है।
- वह जब गावं में निकलता है, कोई दलित गली में चारपाई पर नहीं बैठा रह सकता।
और भी किस्से हैं, हम सबको शर्मिंदा करने के लिए।
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
बाज़ार नहीं बाजारवाद
यह ठीक है कि इसकी बेहतर विवेचना होनी चाहिए लेकिन मुझे लगता है इससे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि आपत्ति बाज़ार पर नहीं बाजारवाद पर और बाज़ार पर काबिज उन ताकतों पर की जाती है जो हर चीज की वयाख्यया बाज़ार और उपभोग के नजरिये से करती हैं। जिन ने माँ और बेटे के सम्बन्ध तक को mothers day में समेटने की कोशिश की है। यह कबीर वाला बाज़ार नहीं रहा जहाँ वे लुकाठी हाथ में लिए खड़े रहते थे। हालाँकि नफा-नुकसान छोड़कर अपना घर जलाने वालों को ही बाज़ार के मुकाबले अलग राह पर चलने के लायक माना गया।
हमारे समय का बाज़ार कहीं अधिक ताकतवर और खतरनाक है। यह सब्जी भाजी खरीदने से लेकर घर-परिवार में किस्से कैसा सम्बन्ध हो तक में दखल देने लगा है। मीडिया तक इस बाज़ार की चपेट में आ गया है। सुबह उठने से लेकर रत को सोने तक हम बाज़ार की निगाह में हैं। अब आप ही बताएं इस बाज़ार का स्यापा ना करें तो क्या करें?
बुधवार, 25 अगस्त 2010
आभार
किचन में घुंघुरू
जातिरहित समाज
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.
रविवार, 22 अगस्त 2010
भीतर का लोकतंत्र
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।
शनिवार, 21 अगस्त 2010
कल फिर दिल्ली
शुक्रवार, 20 अगस्त 2010
मीठेश निर्मोही जी
सोमवार, 16 अगस्त 2010
बुधवार, 11 अगस्त 2010
धूमिल की कविता
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देश भक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है -
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज़यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है।
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।
में सोचता रहा....
धूमिल की कविता 'पटकथा' के अंश
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
सातवाँ संस्करण 2009, पृष्ठ 105-106
सोमवार, 2 अगस्त 2010
रविवार, 1 अगस्त 2010
सुष्मिता जी का जाना
बोधि पुस्तक पर्व के लोकार्पण समारोह में वे सबसे पहले पहुंचने वालों में थीं। लोकार्पण के बाद मुझसे कहा, ''मायामृग, तुमने बहुत अच्छा काम किया है, मैं तुम्हें इसके लिए 'ट्रीट' दूँगी। यह ट्रीट अब हमेशा के के लिए due हो गई। इन किताबों के सेट को देखकर इतनी खुश हुईं कि जितनी वे बोधि से खुद की पुस्तक 'तितली, चिडिया और तुम' आने पर भी नहीं हुईं थीं।
शिक्षा, बाल मनोविज्ञान, साहित्य और समाज की जैसी समझ उन्हें थी, वह दुर्लभ है। हिंदी, बंगला और इंग्लिश भाषाओँ पर उनका पूरा अधिकार था। सबसे खास और न भूलने वाली एक बात है उनका स्नेहिल वयव्हार।
शुक्रवार, 30 जुलाई 2010
डा नामवर सिंह
गुरुवार, 29 जुलाई 2010
धन्यवाद मित्रो
आप में से कई मित्रों ने इस कार्य में सहयोग देने की इच्छा जताई है। आपका स्वागत है। कुछ सवाल भी आये हैं और जिज्ञासाएं भी। एक-एक कर जवाब देने की कोशिश करता हूँ। कुछ छूट जाये तो जरूर बताएं।
हाँ यह सही है कि ये सेट बहुत se शहरों में उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। कुछ जगहों से पुस्तक विक्रताओं ने पहल करके सेट मंगाए हैं। दिल्ली में यह किताबघर, 4855/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 पर उपलब्ध है। किताबघर के उत्साही बन्धु मनोज शर्मा जी का सम्पर्क नंबर है- 9811175085फोन नंबर है- 011-30180011, 23266207
एक मित्र ने पूछा है वी पी पी ke bare main. आम तौर पर प्रकाशक वी पी पी से किताब भेजने में इसलिए कतराते हैं कि बिना छुडाये लौटने पर काफी खर्च हो जाता है और किताब भी कई जगह भटकते-भटकते खराब हो जाती है। फिर भी आप बोधि से वी पी पी द्वारा भी मंगा सकते हैं। इसके लिए आप अपना डाक का पूरा पता मुझे sms कर दें। एक अन्य तरीका यह भी है कि अगर कई सेट एक साथ मंगा रहे हों तो पैसे आप बोधि के बैंक खाते में जमा कर सकते हैं। इसके अलावा आप कोई और तरीका भी सुझा सकते हैं तो स्वागत है। आपके परिचय में कोई पुस्तक विक्रेता इस सेट के विपणन से जुड़ना चाहे तो उन्हें हमारा सम्पर्क दें।
जिन मित्रों ने सहयोग का प्रस्ताव किया है, वे भी विपणन और परसर में जुड़कर सहयोग कर सकते हैं।
मुलाकात 2
पंकज में कुछ खास है। वे स्वभाव से विद्रोही हैं और अपना रास्ता खुद बनाने वालों में हैं। बेहद संवेदनशील यह कवि मित्र ऐसे मिले जैसे बरसों से बिछुड़े दो भाई अकस्मात मिल जाएँ कहीं॥ ऐसे प्यारे दोस्त फेस बुक से मिले हैं।
बुधवार, 28 जुलाई 2010
मुलाकात
J N U वाकई बोद्धिक विमर्श और सीखने का स्थान है, खास तौर पर तब जबकि वहां ऐसे मित्र हों। मेरा दिल्ली जाना सार्थक हुआ।
बुधवार, 21 जुलाई 2010
वे दिन
मुझे मालूम है साहित्य में इसे नास्टेल्जिया कहा जाता है, पर ये है तो क्या करें?
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
मुलाकात हुई-कुछ बात हुई
शनिवार, 3 जुलाई 2010
गुरुवार, 1 जुलाई 2010
बुधवार, 23 जून 2010
रामकुमार ओझा जी के यात्रा वृतांत
मंगलवार, 22 जून 2010
बोधि की पहली किताब
शनिवार, 12 जून 2010
पुस्तक पर्व पर हुई बहस के बारे में लक्ष्मी शर्मा का आलेख
बोधि पुस्तक पर्व पर चल रही चर्चाओं पर डॉक्टर लक्ष्मी शर्मा ने एक टिप्पणी की है। मित्रों के लिए यहाँ जस की तस रख रहा हूँ।
पिछले दिनों मायामृग ने पुस्तक पर्व के नाम पे जो दुष्कृत्य (?) किया उससे साहित्यिक जगत (??)में भारी उद्वेलन उत्पन्न हुआ और इस प्रकरण पर काफी गंभीर (???) वैचारिक (????) विमर्श(?????) भी हुआ।अब तो ठंडा भी पड़ने लगा है। फिर भी आप्त वाक्य या अंतिम टिप्पणी एक लतीफे के रूप में -एक पति था .पति जैसा( पति परम गुरु )पति। और एक पत्नी थी ,पत्नी जैसी (कार्येषु दासी, क्षमा धरित्री ...)पत्नी। तो दोनों साथ रहते, पत्नी खाना बनाती और पति नुक्स निकालते .(भई विवाह सिद्ध अधिकार जो ठहरा )एक दिन पत्नी ने अंडा बनाया पति ने प्लेट फैंक दी -किसने कहा अंडा बनाने को ?अगले दिन पत्नी ने आमलेट बनाया ,पति ने थप्पड़ जमाया -मूर्ख ,किसने कहा आमलेट बनाने को? अगले दिन पत्नी ने एक प्लेट में उबला अंडा और एक प्लेट में आमलेट बना के रखा, पति ने लात मारी -बेवकूफ ये भी नहीं जानती किस अंडे को उबालना होता है और किस का आमलेट बनाना होता है। जय हो .
शुक्रवार, 11 जून 2010
विष्णु नागर जी का आलेख
शुक्रवार, 4 जून 2010
बनास का नया अंक
बुधवार, 2 जून 2010
क्या कहूं
मंगलवार, 1 जून 2010
आभार
शुक्रवार, 28 मई 2010
लोकार्पण पर वक्ता
मंगलवार, 25 मई 2010
lokarpan
बुधवार, 19 मई 2010
बोधि पुस्तक पर्व
मंगलवार, 4 मई 2010
पुस्तक पर्व
बुधवार, 21 अप्रैल 2010
पुस्तक पर्व का पहला सेट
कविता
१- भीगे डेनों वाला गरुण विजेंद्र
२- आकाश की जात बता भैया चंद्रकांत देवताले
३- जहाँ उजाले की एक रेखा खिंची है नन्द चतुर्वेदी
४- प्रपंच सार सुबोधिनी हेमंत शेष
कहानी
५- आठ कहानियां महीप सिंह
६- गुडnight इंडिया प्रमोद कुमार शर्मा
७- घग्घर नदी के टापू सुरेन्द्र सुन्दरम
अन्य
८- कुछ इधर की-कुछ उधर की हेतु भारद्वाज
९- जब समय दोहरा रहा हो इतिहास नासिरा शर्मा
१०- तारीख की खंजड़ी सत्यनारायण
पहला सेट मई १५ तक आने की सम्भावना है।
मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010
किताब बचाने की खातिर
किताबों को फिर से केंद्र में लाने के लिए बोधि प्रकाशन भी एक प्रयोग करने जा रहा है।
दस-दस किताबों के दस सेट 'बोधि पुस्तक-पर्व' के तहत प्रकाशित किये जायेंगे।
हर सेट की कीमत मात्र 100 रूपये होगी। यानि 80 से 100 पृष्ठ की प्रति पुस्तक केवल 10 रूपये में।
खास बात ये कि यह कीमत लागत से भी कम है। ये पुस्तकें गली-गली, मेले-मेले, नुक्कड़-चोराहे पर जन-जन के बीच विक्रय कि जाएँगी। इस योजना के बारे में अधिक जानना चाहें तो gmail.com पर या मेरे मोबाइल नंबर 98290-18087 पर संपर्क कर सकते हैं।
शनिवार, 6 फ़रवरी 2010
... कि जीवन ठहर न जाये
आओ कुछ करें
कुछ तो करें।
शहर के बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरियाँ झडकाएं
और बटोरें खट्टे-मीठे बेर।
चलो ना आज
रेल कि पटरी पर
दस्सी रख कर
गाड़ी का इंतजार करें।
कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी के नीचे आकर।
चलो तो-
झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकर और ठिकरियां
चुंगी के पास वाले जोहड़े में
ठिकरियों से पानी में थालियाँ बनायें
छोटी-बड़ी थालियाँ।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।
छप-छप पैर चलाकर
जोहड़े में अन्दर-बाहर खेलें।
या कि -
गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रंगकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डराएँ
कैसे फुदकता है मोटू सींग देखकर।
कितना कुछ पड़ा है करने को।
अख़बारों से फोटुएं काट-काट कर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में 'फस्स' से चलाना
और उकेरना
पंख, तितली या बिल्ली का मुंह।
चोर-सिपाही, पोषम पा भाई पोषम पा
खेले कितने दिन गुज़र गए...
चलो ना कुछ करें
कहीं से भी सही - शुरू तो करें
... कि जीवन ठहर न जाये
चलो कुछ करें.... ।
शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010
गौ सेवक
इस बीच काफी 'गौ भक्त' जमा हो गए। जो गाय हिल भी नहीं पा रही थी उसे चारा डालने की होड़ लग गई।
इस पूरी घटना पर सवाल केवल दो- पहला ये कि जानवरों की मदद के नाम पर अच्छा खासा अनुदान और चंदा बटोरने वाली इन संस्थाओं की जिम्मेदारी कैसे तय हो? दूसरा ये कि गौ भक्ति सिर्फ चारा डालने से ही होती है?
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
गुरुवार, 21 जनवरी 2010
देहदान के संदर्भ
ये प्रसंग हमारे लिए आदर्श तो प्रस्तुत करते हैं साथ ही कुछ सवाल भी खड़े करते हैं। इन्होने जिन मेडिकल स्टुडेंट्स के हित में अपनी देह दान में दी उनकी नैतिक स्थिति क्या है? डॉक्टर बनकर समाज में कदम रखने वाले ये स्टुडेंट्स इस देहदान की कीमत किस तरह चुकाते हैं ये आपसे छिपा नहीं है। नोबेल प्रोफ़शन कहे जाने वाले इस क्षेत्र में कितने नोबेल लोग बचे हैं?
आपकी राय इस मुद्दे पर आमंत्रित है कि क्या देहदान के हवाले से इन भावी doctors को किसी नैतिक बंधन में नहीं बांधा जाना चाहिए? क्या देहदान सशर्त होना चाहिए?
आपके विचार इस मुद्दे को गंभीर विमर्श का मुद्दा बनायेंगे, इस आशा के साथ....
रविवार, 17 जनवरी 2010
हरीश भादानी एवं मेजर रतन जांगिड पुरुस्कार विवाद
मित्र दुष्यंत तो इस मुद्दे पर काफी आक्रामक जान पड़ते हैं। उनकी तरह से सोचें तो लगता है जैसे मेजर को पुरुस्कार मिलना कोई अपराधपूर्ण कृत्य है।
अगर आपको पुरुस्कार के निर्णय से कोई आपत्ति है तो अकादमी की कार्य शेली पर बात कीजिये, निर्णायकों की समझ पर सवाल उठाइए, पुरुस्कार पाने वाले को जबरन अपराधबोध में धकेलने की कोशिश करना गलत है। पुरुस्कार लौटाने की बिना मांगी सलाह देना तो कतई गैर जरूरी है।
एक बात यह भी कि एक ओर तो हम इस तरह के पुरुस्कारों के महत्व को ही नकारते हैं दूसरी तरफ इसे लेकर इतना हल्ला मचाते हैं। यह समझ से बाहर है। दुष्यंत मेजर को भला इन्सान बताते हैं लेकिन साथ ही लगे हाथ उनकी आर्मी ब्रांड पीने वालों के बहाने मेजर को भी लपेट लेते हैं। दुष्यंत की आक्रामकता कभी इतनी बेलगाम हो जाती है कि वे बिना किसी संदर्भ के हरिराम मीना पर भी हमला बोल देते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें मीना के पुलिसिया रोब का भय नहीं है इसलिए अपनी टिप्पणी पर कायम हैं। मेरे मित्र क्या बताएँगे कि मीना ने किस-किस लेखक को अपने पुलिसिया रोब से भयभीत कर राय बदलवाई है। जब आप किसी के लेखन पर टिप्पणी कर रहे हैं तो उसकी नौकरी या आजीविका के साधन पर गैर जरूरी टीका न करें। रही बात भला या बुरा इन्सान होने की तो सच मानिये घर-घर मिटटी के चूल्हे हैं दुष्यंत जी। और हाँ, मैं किसी के साथ खाने और पीने वालों मैं नहीं हूँ इसलिए किसी खेमे से जोड़कर नहीं देखें।