सोमवार, 6 सितंबर 2010

नागरिकता

मित्र आपने अच्छा सवाल उठाया है। यह बुनियादी हकों से जुड़ा मामला है। खुली अर्थवयवस्था में और भी बहुत कुछ खुलकर सामने आ गया है। बड़ी कम्पनियों से बड़ा लाभ पाने की उम्मीद में उनके क़दमों में बिछ जाने वाले हमारे राजनेताओं ने मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग को कभी भी वोटों से जयादा कुछ माना ही नहीं। विश्वसनीयता की हालत तो कभी भी छिपी नहीं रही, भावना में बहकर नारे लगाने वाले भी जरा सा होश आते ही सच बोलने लगते हैं। राजनीति को तो जाने दीजिये, पूंजी के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके समाज में भी इतनी नैतिकता शेष नहीं कि अपने सामने हो रहे अनाचार को गलत कहकर अपना पक्ष रख सके। रही बात सरकार की तो मित्र इसे ना ही छेड़ें , सरकार की जिम्मेदारी तो अच्छा खासा चुटकुला है।
यह आवाज आपके दिल से निकली है...इसलिए दिल को छूती है।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

स्कूल या यातना गृह

पल्लू में एक मासूम की बेरहम पिटाई का मामला सामने आया है। जयपुर में, और अन्य जगहों से पहले भी इस तरह की घटनाएँ देखने-सुनने में आती रही हैं। पता नहीं हम लोग सभी कब होंगे और लोकतान्त्रिक तो पता नहीं होंगे भी या नहीं...मासूम बच्चे को पीटते हुए हमारे कथित गुरुजनों के हाथ किसी शर्म, दबाव या अदालतों के आदेशों से भी रुकने में नहीं आ रहे। कोई और काम-धंधा ना मिलने की मजबूरी में मास्टर बने ये "गुरुजन" किसी भी हद तक गिर जाते हैं। मारपीट-दुर्वयवहार, छेड़छाड़ और अनैतिक वयवहार जिनका सवभाव है उन्हें शिक्षा जैसे गंभीर क्षेत्र से कैसे दूर रखा जाये, इस पर बहुत कम सोचा गया है। अब सोचा जाना चाहिए।
अध्यापक वेश में ऐसे हिंसक अपराधी को तो सजा मिलनी ही चाहिए। स्कूल के नाम पर चल रही शिक्षा की फुटपाथी दुकानों पर भी नकेल कसे जाने की जरूरत है। पल्लू के इस स्कूल के मालिक (कहने के लिए स्कूल प्रशासन ) और मामला दर्ज करने की बजाय पीड़ित को ही धमकाने वाले पुलिस कर्मियों की भी सार्वजानिक निंदा करनी चाहिए। पल्लू एक छोटा क़स्बा है, यहाँ अभी भी सामाजिक निंदा दबाव बना सकती है।
अदालत में इस्तगासा तो करना ही चाहिए।
अन्य अभिभावकों को भी इस घटना के विरोध में खुलकर आना चाहिए, दोनों हाथो से पैसा लूटने वाले हमारे बच्चों पर हाथ भी उठायें..क्यों भाई? अगर स्कूल स्कूल ना रहकर यातना गृह बन जाये तो उसका बंद होना ही हितकर है।
मीडिया के साथियों को भी इस मामले को पुरजोर ढंग से उठाना चाहिए। अनिल जी ने यह मामला सामने लाकर बेहतर काम किया है.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

गीता क्या है

गीता क्या है
अर्जुन के तीन वाक्य
- मैं अपनों से कैसे लडूं?
- मेरा मोह दूर हो गया है
- हे जनार्दन जो तू कहे, करने को तैयार हूँ

जन्माष्टमी

आज कान्हा का जन्मदिन है। उसकी देवकी मां ने उसे बुलाया है, अपने पास जन्मदिन मनाने। यशोदा मां का दिल धक्-धक् कर रहा है। वह कान्हा को रोकना नहीं चाहती। कान्हा की ख़ुशी में ही उसकी ख़ुशी है पर मां का दिल ठहरा.... मुझे नहीं पता कि कान्हा जन्मदिन कहाँ मनायेगा...शायद आपको पता हो....

बुधवार, 1 सितंबर 2010

किस काम का काम

जी, काम-काम और काम। ऐसा काम भी किस काम का? कभी दो पल फुर्सत निकालें, खुद से मिलें, मित्रों से मिलें। दुनिया को देखें ...खुद को देखें...कहते हैं सब जीने के लिए कर रहे हैं। पर जीते कब हैं भाई? मध्यमवर्गीय इन्सान की यही करुण कहानी है...

जादूगर

एक वह जादूगर है जो मंच पर एक लड़की को कई टुकड़ों में काट देता है और कुछ ही पलों में टुकड़ों को जोड़कर फिर से लड़की को जिन्दा कर देता है। लोग कहते हैं वह तो भगवान है, जो मुर्दा को फिर से जिन्दा कर दे...
एक दूसरा जादूगर है। वह लड़की को कोख में ही टुकड़े-टुकड़े कर देता है। फिर उन टुकड़ों को पोलिथीन की थेलियों में समेटकर दुनिया के तमाम दर्शकों की नज़र से हमेशा के लिए गायब कर देता है। लोग कहते तो इसे भी भगवान ही थे....पर.....

सोमवार, 30 अगस्त 2010

जातिरहित समाज

अंजुले जी, जातीय गौरव और जातीय हीनता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव दूसरे की जाति के प्रति हीनता की दृष्टि पैदा करता है। मुझे एक मित्र से यह जानकर हैरानी हुई कि सवर्ण जातियों द्वारा कथित अवर्ण जातियों के प्रति भेदभाव के साथ साथ इन पिछड़ी कहे जाने वाली जातियों में भी आपस में काफी संस्तरण मौजूद है। यह भाव शायद सवर्णों की संगत का असर है।
जिस समस्या की ओर आपने संकेत किया है, वह तो प्रतीक मात्र ही है। राजस्थान में आज भी ऐसे गावं मौजूद हैं जहाँ खुद को ऊँचा कहने वाली जातियों की खुली दादागिरी चलती है। मेरे एक अध्यापक मित्र को गावं वालों केवल इस बात पर धमकी दे कि वह हमारे ही दूसरे मित्र के यहाँ चाय पीने क्यों चला गया, जो कि कथित निम्न जाति का है।
एक शोध के सिलसिले में कई गावों में जाने का अवसर मिला। जो अनुभव हुए, जो बातें सुनने को मिली वे किसी भी सभ्यता के मुह पर तमाचे की तरह ही लगी।
- एक गावं में स्कूल की पानी की टंकी को इसलिए तोड़कर दुबारा बनाया गया कि कुछ दलित बच्चे उस पर चदकर पतंग लूटते पाए गए।
- स्वाधीनता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के बाद अभिभावकों को चाय पिलाने का समय आया तो दलित अभिभावकों से कहा गया कि वे आक के पत्तों का दोना बनाकर उसमें ची ले लें।
- मेरा एक मित्र बड़े गर्व से बताता है कि उसके गावं में आज भी कोई दलित उसके घर के सामने जूते पहन कर नहीं निकल सकता।
-दलित के घर शादी हो तो पहला ढोल उसके घर पर बजता है।
- वह जब गावं में निकलता है, कोई दलित गली में चारपाई पर नहीं बैठा रह सकता।
और भी किस्से हैं, हम सबको शर्मिंदा करने के लिए।