मित्र विजय जी ने बाज़ार के नाम पर की जाने वाली आपतियों (जिसे उन्होंने स्यापा कहा है) पर आपत्ति की है। उनका मत है की ''बाज़ार'' शब्द को समझे बिना ही इसे कोसा जाता है।
यह ठीक है कि इसकी बेहतर विवेचना होनी चाहिए लेकिन मुझे लगता है इससे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि आपत्ति बाज़ार पर नहीं बाजारवाद पर और बाज़ार पर काबिज उन ताकतों पर की जाती है जो हर चीज की वयाख्यया बाज़ार और उपभोग के नजरिये से करती हैं। जिन ने माँ और बेटे के सम्बन्ध तक को mothers day में समेटने की कोशिश की है। यह कबीर वाला बाज़ार नहीं रहा जहाँ वे लुकाठी हाथ में लिए खड़े रहते थे। हालाँकि नफा-नुकसान छोड़कर अपना घर जलाने वालों को ही बाज़ार के मुकाबले अलग राह पर चलने के लायक माना गया।
हमारे समय का बाज़ार कहीं अधिक ताकतवर और खतरनाक है। यह सब्जी भाजी खरीदने से लेकर घर-परिवार में किस्से कैसा सम्बन्ध हो तक में दखल देने लगा है। मीडिया तक इस बाज़ार की चपेट में आ गया है। सुबह उठने से लेकर रत को सोने तक हम बाज़ार की निगाह में हैं। अब आप ही बताएं इस बाज़ार का स्यापा ना करें तो क्या करें?
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