GSM जी जातिरहित समाज की आकांक्षा इंसानियत में यकीन रखने वाले हर व्यक्ति का आदर्श है। खेद यह कि जिस जरूरत को बालकृष्ण भट्ट जी ने अपने समय में महसूस कर लिया, वह आज तक हमारे ''बुद्धिजीवियों '' को महसूस नहीं हुई वर्ना क्या कारण हैं कि आज भी इस मसले पर बहस हो रही है कि जातिगत गणना जरूरी है कि नहीं। नित नए जातीय संगठन जो बन रहे हैं, उनमें सिर्फ लठमार ही शामिल नहीं, बुद्धिजीवियों का भी उनमें पूरा हाथ-पैर रहता है।
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.
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