रविवार, 22 अगस्त 2010

भीतर का लोकतंत्र

मित्र, दरअसल हुआ यह है की लोकतंत्र को हमने ठीक से जाना ही नहीं। मोटे तौर पर हमने इसे एक वयवस्था मात्र समझ लिया जबकि लोकतंत्र एक समग्र जीवन शैली है। यह बाहर की वयवस्था नहीं, भीतर की वयवस्था है। हमारे भीतर लोकतंत्र का मूल उपजा ही नहीं। यह कदम-कदम पर दिखता है। क्या हम अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को उनकी बात कहने और हमसे असहमत होने की अनुमति देते हैं? क्या हम घरेलू निर्णयों में पूरे परिवार की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं? यदि हम शिक्षक हैं तो क्या हम क्लास में लोकतंत्र का पालन करते हैं? यदि हम यात्री हैं तो क्या हम रेल या बस में ''सबका समान अधिकार'' की लोकतान्त्रिक शैली वाला वयवहार करते हैं? अपने मित्रों के बीच भी हम कितने लोकतान्त्रिक होते हैं..उनकी बात सुनने, उनकी असहमति का आदर करने और उनके साथ बराबरी का वयवहार करने में क्या हमरा लोकतान्त्रिक रूप दिखता है?
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।

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