मेजर रतन जांगिड़ को अकादमी पुरुस्कार मिलने पर कुछ मित्रों ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है जो अवांछित ही है। हरीश भादानी हमेशा इस किस्म के विवादों से दूर ही रहे, उनके जाने के बाद उन्हें फोकस करके अनावश्यक बहस छेड़ना पूरी तरह बेमानी है।
मित्र दुष्यंत तो इस मुद्दे पर काफी आक्रामक जान पड़ते हैं। उनकी तरह से सोचें तो लगता है जैसे मेजर को पुरुस्कार मिलना कोई अपराधपूर्ण कृत्य है।
अगर आपको पुरुस्कार के निर्णय से कोई आपत्ति है तो अकादमी की कार्य शेली पर बात कीजिये, निर्णायकों की समझ पर सवाल उठाइए, पुरुस्कार पाने वाले को जबरन अपराधबोध में धकेलने की कोशिश करना गलत है। पुरुस्कार लौटाने की बिना मांगी सलाह देना तो कतई गैर जरूरी है।
एक बात यह भी कि एक ओर तो हम इस तरह के पुरुस्कारों के महत्व को ही नकारते हैं दूसरी तरफ इसे लेकर इतना हल्ला मचाते हैं। यह समझ से बाहर है। दुष्यंत मेजर को भला इन्सान बताते हैं लेकिन साथ ही लगे हाथ उनकी आर्मी ब्रांड पीने वालों के बहाने मेजर को भी लपेट लेते हैं। दुष्यंत की आक्रामकता कभी इतनी बेलगाम हो जाती है कि वे बिना किसी संदर्भ के हरिराम मीना पर भी हमला बोल देते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें मीना के पुलिसिया रोब का भय नहीं है इसलिए अपनी टिप्पणी पर कायम हैं। मेरे मित्र क्या बताएँगे कि मीना ने किस-किस लेखक को अपने पुलिसिया रोब से भयभीत कर राय बदलवाई है। जब आप किसी के लेखन पर टिप्पणी कर रहे हैं तो उसकी नौकरी या आजीविका के साधन पर गैर जरूरी टीका न करें। रही बात भला या बुरा इन्सान होने की तो सच मानिये घर-घर मिटटी के चूल्हे हैं दुष्यंत जी। और हाँ, मैं किसी के साथ खाने और पीने वालों मैं नहीं हूँ इसलिए किसी खेमे से जोड़कर नहीं देखें।
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