सोमवार, 6 सितंबर 2010

नागरिकता

मित्र आपने अच्छा सवाल उठाया है। यह बुनियादी हकों से जुड़ा मामला है। खुली अर्थवयवस्था में और भी बहुत कुछ खुलकर सामने आ गया है। बड़ी कम्पनियों से बड़ा लाभ पाने की उम्मीद में उनके क़दमों में बिछ जाने वाले हमारे राजनेताओं ने मध्यम और निम्न मध्यम वर्ग को कभी भी वोटों से जयादा कुछ माना ही नहीं। विश्वसनीयता की हालत तो कभी भी छिपी नहीं रही, भावना में बहकर नारे लगाने वाले भी जरा सा होश आते ही सच बोलने लगते हैं। राजनीति को तो जाने दीजिये, पूंजी के सामने पूरी तरह से समर्पण कर चुके समाज में भी इतनी नैतिकता शेष नहीं कि अपने सामने हो रहे अनाचार को गलत कहकर अपना पक्ष रख सके। रही बात सरकार की तो मित्र इसे ना ही छेड़ें , सरकार की जिम्मेदारी तो अच्छा खासा चुटकुला है।
यह आवाज आपके दिल से निकली है...इसलिए दिल को छूती है।

शनिवार, 4 सितंबर 2010

स्कूल या यातना गृह

पल्लू में एक मासूम की बेरहम पिटाई का मामला सामने आया है। जयपुर में, और अन्य जगहों से पहले भी इस तरह की घटनाएँ देखने-सुनने में आती रही हैं। पता नहीं हम लोग सभी कब होंगे और लोकतान्त्रिक तो पता नहीं होंगे भी या नहीं...मासूम बच्चे को पीटते हुए हमारे कथित गुरुजनों के हाथ किसी शर्म, दबाव या अदालतों के आदेशों से भी रुकने में नहीं आ रहे। कोई और काम-धंधा ना मिलने की मजबूरी में मास्टर बने ये "गुरुजन" किसी भी हद तक गिर जाते हैं। मारपीट-दुर्वयवहार, छेड़छाड़ और अनैतिक वयवहार जिनका सवभाव है उन्हें शिक्षा जैसे गंभीर क्षेत्र से कैसे दूर रखा जाये, इस पर बहुत कम सोचा गया है। अब सोचा जाना चाहिए।
अध्यापक वेश में ऐसे हिंसक अपराधी को तो सजा मिलनी ही चाहिए। स्कूल के नाम पर चल रही शिक्षा की फुटपाथी दुकानों पर भी नकेल कसे जाने की जरूरत है। पल्लू के इस स्कूल के मालिक (कहने के लिए स्कूल प्रशासन ) और मामला दर्ज करने की बजाय पीड़ित को ही धमकाने वाले पुलिस कर्मियों की भी सार्वजानिक निंदा करनी चाहिए। पल्लू एक छोटा क़स्बा है, यहाँ अभी भी सामाजिक निंदा दबाव बना सकती है।
अदालत में इस्तगासा तो करना ही चाहिए।
अन्य अभिभावकों को भी इस घटना के विरोध में खुलकर आना चाहिए, दोनों हाथो से पैसा लूटने वाले हमारे बच्चों पर हाथ भी उठायें..क्यों भाई? अगर स्कूल स्कूल ना रहकर यातना गृह बन जाये तो उसका बंद होना ही हितकर है।
मीडिया के साथियों को भी इस मामले को पुरजोर ढंग से उठाना चाहिए। अनिल जी ने यह मामला सामने लाकर बेहतर काम किया है.

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

गीता क्या है

गीता क्या है
अर्जुन के तीन वाक्य
- मैं अपनों से कैसे लडूं?
- मेरा मोह दूर हो गया है
- हे जनार्दन जो तू कहे, करने को तैयार हूँ

जन्माष्टमी

आज कान्हा का जन्मदिन है। उसकी देवकी मां ने उसे बुलाया है, अपने पास जन्मदिन मनाने। यशोदा मां का दिल धक्-धक् कर रहा है। वह कान्हा को रोकना नहीं चाहती। कान्हा की ख़ुशी में ही उसकी ख़ुशी है पर मां का दिल ठहरा.... मुझे नहीं पता कि कान्हा जन्मदिन कहाँ मनायेगा...शायद आपको पता हो....

बुधवार, 1 सितंबर 2010

किस काम का काम

जी, काम-काम और काम। ऐसा काम भी किस काम का? कभी दो पल फुर्सत निकालें, खुद से मिलें, मित्रों से मिलें। दुनिया को देखें ...खुद को देखें...कहते हैं सब जीने के लिए कर रहे हैं। पर जीते कब हैं भाई? मध्यमवर्गीय इन्सान की यही करुण कहानी है...

जादूगर

एक वह जादूगर है जो मंच पर एक लड़की को कई टुकड़ों में काट देता है और कुछ ही पलों में टुकड़ों को जोड़कर फिर से लड़की को जिन्दा कर देता है। लोग कहते हैं वह तो भगवान है, जो मुर्दा को फिर से जिन्दा कर दे...
एक दूसरा जादूगर है। वह लड़की को कोख में ही टुकड़े-टुकड़े कर देता है। फिर उन टुकड़ों को पोलिथीन की थेलियों में समेटकर दुनिया के तमाम दर्शकों की नज़र से हमेशा के लिए गायब कर देता है। लोग कहते तो इसे भी भगवान ही थे....पर.....

सोमवार, 30 अगस्त 2010

जातिरहित समाज

अंजुले जी, जातीय गौरव और जातीय हीनता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव दूसरे की जाति के प्रति हीनता की दृष्टि पैदा करता है। मुझे एक मित्र से यह जानकर हैरानी हुई कि सवर्ण जातियों द्वारा कथित अवर्ण जातियों के प्रति भेदभाव के साथ साथ इन पिछड़ी कहे जाने वाली जातियों में भी आपस में काफी संस्तरण मौजूद है। यह भाव शायद सवर्णों की संगत का असर है।
जिस समस्या की ओर आपने संकेत किया है, वह तो प्रतीक मात्र ही है। राजस्थान में आज भी ऐसे गावं मौजूद हैं जहाँ खुद को ऊँचा कहने वाली जातियों की खुली दादागिरी चलती है। मेरे एक अध्यापक मित्र को गावं वालों केवल इस बात पर धमकी दे कि वह हमारे ही दूसरे मित्र के यहाँ चाय पीने क्यों चला गया, जो कि कथित निम्न जाति का है।
एक शोध के सिलसिले में कई गावों में जाने का अवसर मिला। जो अनुभव हुए, जो बातें सुनने को मिली वे किसी भी सभ्यता के मुह पर तमाचे की तरह ही लगी।
- एक गावं में स्कूल की पानी की टंकी को इसलिए तोड़कर दुबारा बनाया गया कि कुछ दलित बच्चे उस पर चदकर पतंग लूटते पाए गए।
- स्वाधीनता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के बाद अभिभावकों को चाय पिलाने का समय आया तो दलित अभिभावकों से कहा गया कि वे आक के पत्तों का दोना बनाकर उसमें ची ले लें।
- मेरा एक मित्र बड़े गर्व से बताता है कि उसके गावं में आज भी कोई दलित उसके घर के सामने जूते पहन कर नहीं निकल सकता।
-दलित के घर शादी हो तो पहला ढोल उसके घर पर बजता है।
- वह जब गावं में निकलता है, कोई दलित गली में चारपाई पर नहीं बैठा रह सकता।
और भी किस्से हैं, हम सबको शर्मिंदा करने के लिए।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

बाज़ार नहीं बाजारवाद

मित्र विजय जी ने बाज़ार के नाम पर की जाने वाली आपतियों (जिसे उन्होंने स्यापा कहा है) पर आपत्ति की है। उनका मत है की ''बाज़ार'' शब्द को समझे बिना ही इसे कोसा जाता है।
यह ठीक है कि इसकी बेहतर विवेचना होनी चाहिए लेकिन मुझे लगता है इससे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि आपत्ति बाज़ार पर नहीं बाजारवाद पर और बाज़ार पर काबिज उन ताकतों पर की जाती है जो हर चीज की वयाख्यया बाज़ार और उपभोग के नजरिये से करती हैं। जिन ने माँ और बेटे के सम्बन्ध तक को mothers day में समेटने की कोशिश की है। यह कबीर वाला बाज़ार नहीं रहा जहाँ वे लुकाठी हाथ में लिए खड़े रहते थे। हालाँकि नफा-नुकसान छोड़कर अपना घर जलाने वालों को ही बाज़ार के मुकाबले अलग राह पर चलने के लायक माना गया।
हमारे समय का बाज़ार कहीं अधिक ताकतवर और खतरनाक है। यह सब्जी भाजी खरीदने से लेकर घर-परिवार में किस्से कैसा सम्बन्ध हो तक में दखल देने लगा है। मीडिया तक इस बाज़ार की चपेट में आ गया है। सुबह उठने से लेकर रत को सोने तक हम बाज़ार की निगाह में हैं। अब आप ही बताएं इस बाज़ार का स्यापा ना करें तो क्या करें?

पैमाना

गिरा हाथ से तो टूट गया पैमाना शीशे का
देर तक याद रहा उसमें बचा इक मय का कतरा...

बुधवार, 25 अगस्त 2010

आभार

आज जन्मदिन पर आप मित्रों के इतने सारे सन्देश पाकर में बहुत खुश हूँ। साथ ही आपके स्नेह के लिए ह्रदय से आभारी हूँ। आपकी दुआओं से अब तक अच्छी कट गई, बाकी भी इसी तरह सबके बीच रहते गुज़र जाये यही इच्छा है। आप सब मित्रों का धन्यवाद, आपने आपनी शुभकामनाओं से मुझे नया उत्साह दिया। पुनः आभार।

किचन में घुंघुरू

यह अच्छा हुआ कि आपको अपने पुराने घुंघुरू मिल गए, हाँ उन्हें मिलना तो किचन में ही था। आम तौर पर किचन में गुम होने वाले घुंघुरू, सितार, वायलिन या कि कत्थक के चरण हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं। मेरी कई दोस्त सदियों से उन्हें ढूंढ रही हैं। आपको मिल गए, अब उन्हें भी ढूँढने में मदद कीजिये....

जातिरहित समाज

GSM जी जातिरहित समाज की आकांक्षा इंसानियत में यकीन रखने वाले हर व्यक्ति का आदर्श है। खेद यह कि जिस जरूरत को बालकृष्ण भट्ट जी ने अपने समय में महसूस कर लिया, वह आज तक हमारे ''बुद्धिजीवियों '' को महसूस नहीं हुई वर्ना क्या कारण हैं कि आज भी इस मसले पर बहस हो रही है कि जातिगत गणना जरूरी है कि नहीं। नित नए जातीय संगठन जो बन रहे हैं, उनमें सिर्फ लठमार ही शामिल नहीं, बुद्धिजीवियों का भी उनमें पूरा हाथ-पैर रहता है।
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.

रविवार, 22 अगस्त 2010

भीतर का लोकतंत्र

मित्र, दरअसल हुआ यह है की लोकतंत्र को हमने ठीक से जाना ही नहीं। मोटे तौर पर हमने इसे एक वयवस्था मात्र समझ लिया जबकि लोकतंत्र एक समग्र जीवन शैली है। यह बाहर की वयवस्था नहीं, भीतर की वयवस्था है। हमारे भीतर लोकतंत्र का मूल उपजा ही नहीं। यह कदम-कदम पर दिखता है। क्या हम अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को उनकी बात कहने और हमसे असहमत होने की अनुमति देते हैं? क्या हम घरेलू निर्णयों में पूरे परिवार की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं? यदि हम शिक्षक हैं तो क्या हम क्लास में लोकतंत्र का पालन करते हैं? यदि हम यात्री हैं तो क्या हम रेल या बस में ''सबका समान अधिकार'' की लोकतान्त्रिक शैली वाला वयवहार करते हैं? अपने मित्रों के बीच भी हम कितने लोकतान्त्रिक होते हैं..उनकी बात सुनने, उनकी असहमति का आदर करने और उनके साथ बराबरी का वयवहार करने में क्या हमरा लोकतान्त्रिक रूप दिखता है?
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

कल फिर दिल्ली

कल रविवार को दिल्ली जा रहा हूँ। सोमवार दोपहर तक रुकने का कार्यक्रम है। कम समय में अधिक से अधिक मित्रों से मिलना चाहता हूँ। JNU और DU भी जाना चाहता हूँ। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भी एक कार्यक्रम है। कितने सारे काम हैं करने को, और वक़्त कितना कम मिला है हमें...

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

मीठेश निर्मोही जी

कल मित्र प्रेमचंद गाँधी के साथ बैंक में मीठेश निर्मोही जी से मिलने का सुअवसर मिला। वे मिठास से परिपूरण व्यक्ति हैं। मिलकर अच्छा लगा। कुछ चर्चा हुई, कुछ गपशप। छोटी-छोटी मुलाकातें कितनी जरूरी हैं जिंदगी के लिए, बड़ी-बड़ी बातों की बजाय....

सोमवार, 16 अगस्त 2010

बहाना

वजह ना सही
बहाना ही दे दो
मैं जीना चाहता हूँ
क्योंकि मरने की
ना कोई वजह है
ना बहाना
-मायामृग

बुधवार, 11 अगस्त 2010

धूमिल की कविता

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देश भक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है -
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज़यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है।
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।
में सोचता रहा....

धूमिल की कविता 'पटकथा' के अंश
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
सातवाँ संस्करण 2009, पृष्ठ 105-106

सोमवार, 2 अगस्त 2010

रविवार, 1 अगस्त 2010

सुष्मिता जी का जाना

पिछले कुछ दिनों में घटनाओं की गति इतनी तेज रही कि समझ में आना मुश्किल हो गया कि खुश होऊं या उदास। दिल्ली में मित्रों से हुई मुलाकातों का जिक्र में पहले कर चुका हूँ। दिल्ली से लौटने के अगले ही दिन हमारी अत्यंत प्रिय मित्र सुष्मिता बेनर्जी का निधन हो गया। केवल 55 साल की आयु में उनका इस तरह अचानक बीच में से उठकर चल देना, विश्वास के काबिल नहीं लगता। दिल्ली जाते हुए उनसे मिला था। चाय के लिए कहा तो मैंने 'फिर कभी' पर टाल दिया। वह 'फिर कभी' अब कभी नहीं आएगा।
बोधि पुस्तक पर्व के लोकार्पण समारोह में वे सबसे पहले पहुंचने वालों में थीं। लोकार्पण के बाद मुझसे कहा, ''मायामृग, तुमने बहुत अच्छा काम किया है, मैं तुम्हें इसके लिए 'ट्रीट' दूँगी। यह ट्रीट अब हमेशा के के लिए due हो गई। इन किताबों के सेट को देखकर इतनी खुश हुईं कि जितनी वे बोधि से खुद की पुस्तक 'तितली, चिडिया और तुम' आने पर भी नहीं हुईं थीं।
शिक्षा, बाल मनोविज्ञान, साहित्य और समाज की जैसी समझ उन्हें थी, वह दुर्लभ है। हिंदी, बंगला और इंग्लिश भाषाओँ पर उनका पूरा अधिकार था। सबसे खास और न भूलने वाली एक बात है उनका स्नेहिल वयव्हार।

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

डा नामवर सिंह

दिल्ली प्रवास के दौरान इस बार जिनके सानिध्य का लाभ इस बार मिला उनमें डॉक्टर नामवर सिंह भी हैं। नामवर जी ने बोधि पुस्तक पर्व को सराहा और जयपुर आने पर प्रकाशन पर भी आने की इच्छा जताई। 'बोधि' के लिए यह गर्व और सम्मान की बात है।

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

धन्यवाद मित्रो

मित्र सुयश सुप्रभ की पोस्ट के जवाब में ढेर सारे मित्रों ने बोधि पुस्तक पर्व के प्रति अपना उत्साह प्रकट किया है। में इन सभी का हृदय से आभारी हूँ।
आप में से कई मित्रों ने इस कार्य में सहयोग देने की इच्छा जताई है। आपका स्वागत है। कुछ सवाल भी आये हैं और जिज्ञासाएं भी। एक-एक कर जवाब देने की कोशिश करता हूँ। कुछ छूट जाये तो जरूर बताएं।
हाँ यह सही है कि ये सेट बहुत se शहरों में उपलब्ध नहीं करा पाए हैं। कुछ जगहों से पुस्तक विक्रताओं ने पहल करके सेट मंगाए हैं। दिल्ली में यह किताबघर, 4855/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 पर उपलब्ध है। किताबघर के उत्साही बन्धु मनोज शर्मा जी का सम्पर्क नंबर है- 9811175085फोन नंबर है- 011-30180011, 23266207
एक मित्र ने पूछा है वी पी पी ke bare main. आम तौर पर प्रकाशक वी पी पी से किताब भेजने में इसलिए कतराते हैं कि बिना छुडाये लौटने पर काफी खर्च हो जाता है और किताब भी कई जगह भटकते-भटकते खराब हो जाती है। फिर भी आप बोधि से वी पी पी द्वारा भी मंगा सकते हैं। इसके लिए आप अपना डाक का पूरा पता मुझे sms कर दें। एक अन्य तरीका यह भी है कि अगर कई सेट एक साथ मंगा रहे हों तो पैसे आप बोधि के बैंक खाते में जमा कर सकते हैं। इसके अलावा आप कोई और तरीका भी सुझा सकते हैं तो स्वागत है। आपके परिचय में कोई पुस्तक विक्रेता इस सेट के विपणन से जुड़ना चाहे तो उन्हें हमारा सम्पर्क दें।
जिन मित्रों ने सहयोग का प्रस्ताव किया है, वे भी विपणन और परसर में जुड़कर सहयोग कर सकते हैं।

मुलाकात 2

इस बार दिल्ली में J N U के आलावा जिन साथियों से मुलाकात संभव हो पाई वे हैं, भाई पृथ्वी परिहार और पंकज नारायण। पृथ्वी P T I में हैं और ख़बरों की तह तक जाने में विश्वास करते हैं। उनसे मिलना जैसे अपने आप से मिलना है। वाही ग्रामीण सादगी और बोद्धिक होते हुए भी दिमाग को दिल पर हावी ना होने देना। उनके साथ चाय का आनंद लिया और मंडी हाउस में युवा मित्र पंकज नारायण से मिलने चला गया।
पंकज में कुछ खास है। वे स्वभाव से विद्रोही हैं और अपना रास्ता खुद बनाने वालों में हैं। बेहद संवेदनशील यह कवि मित्र ऐसे मिले जैसे बरसों से बिछुड़े दो भाई अकस्मात मिल जाएँ कहीं॥ ऐसे प्यारे दोस्त फेस बुक से मिले हैं।

बुधवार, 28 जुलाई 2010

मुलाकात

परसों शाम दिल्ली से लौटा। इस बार दिल्ली कुछ खास थी। j n u में सुयश-रश्मि, गनपत, पुखराज जांगिड, हादी भाई और नितिन से मुलाकात हुई। सुयश सुप्रभ भाषा के जानकार और भाषा के प्रति काफी संवेदनशील हैं। हिंदी के वे जर्मन के भी ज्ञाता हैं। नई तकनीक का इस्तेमाल प्रिंट मीडिया के हित में कैसे हो, इस पर अच्छी चर्चा हुई। मित्र पुखराज जांगिड राजस्थानी ko भाषा के रूप में प्यार करने वालों में हैं लेकिन खास बात यह कि वे हमारे कुछ अन्य मित्रों की तरह इस मुद्दे पर आक्रामक नहीं हैं। वे राजस्थानी की ताकत और कमजोरिओं पर खुलकर बोले। गनपत जी साहित्य और पुस्तक प्रेमी हैं। रश्मि, सुयश की जीवन संगिनी हैं और खास बात यह की वे भी भाषागत संस्कारों को लेकर काफी संवेदनशील हैं। हादी भाई थियेटर से जुड़े हैं। सुयश जी के शब्दों में हादी भाई J N U में आर्ट थियेटर को जिन्दा रखने वालों में से हैं।
J N U वाकई बोद्धिक विमर्श और सीखने का स्थान है, खास तौर पर तब जबकि वहां ऐसे मित्र हों। मेरा दिल्ली जाना सार्थक हुआ।

बुधवार, 21 जुलाई 2010

वे दिन

जाने क्यों कच्चे मकान के बाहर खुले थहडे पर गली के लड़कों के साथ पकड़म -पकड़ाई और शोले फिल्म की शूटिंग के दिन रह-रह कर याद आते हैं। याद आता है की टीटी नाम के लड़के को बसंती का रोल करने के लिए मनाने को क्या-क्या पापड़ बेलने पड़ते थे। बाकी सभी लड़कों को काली माता की सोगंध देनी पड़ती थे की शूटिंग के बाद कोई इसको बसंती कहकर चिडायेगा नहीं...अगर किसी ने ऐसा किया तो कल की शूटिंग में बसंती वही बनेगा...
मुझे मालूम है साहित्य में इसे नास्टेल्जिया कहा जाता है, पर ये है तो क्या करें?

मंगलवार, 6 जुलाई 2010

मुलाकात हुई-कुछ बात हुई

इस रविवार को चूरू से भाई दुला राम, भाई उम्मेद गोठवाल और जयपुर के मित्र सुरेन्द्र सहारण जवाहर कला केंद्र में मिले। फेसबुक पर हुई मुलाकात ज़मीन पर उतरी, अच्छा लगा। सच, गाँव-कस्बे से आया हुआ व्यक्ति शहर में कितना अजनबी सा रहता है कि अपने आस-पास के इलाके से किसी के आने-मिलने पर नए सिरे से जी उठता है। कहने को भले ही दुनिया एक गाँव बन गई है लेकिन अपना गाँव कैसा लगता है यह तो एक गाँव के दो जने मिलने पर ही पता लगता है। क्या मैंने कुछ गलत कहा?

शनिवार, 3 जुलाई 2010

बात

आप
जलती चिता को देखकर
रो रहे हैं ना
अब आपको क्या समझाउं
समझने की बात पर तो
आप रो देते हैं...

बहस

सुनो...
पत्ता जमीन पर गिरा ...
सुनो ...
बहस अभी जारी है
पत्ता ...
जमीन...

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

मन

मन
खाली-खाली मन
मैनें तुम्हें याद किया
और
भर आया
मन

बुधवार, 23 जून 2010

रामकुमार ओझा जी के यात्रा वृतांत


रामकुमार ओझा जी के यात्रा वृतांत की पुस्तक ' तन धूलि धूसर मन गौरी शंकर' बोधि से आने वाली है। प्रस्तुत हैं इस अनछपी किताब के कुछ पन्ने-

पेज 2


पेज 2

पेज 3


पेज ३

पेज 4


पेज ४

पेज 5

मंगलवार, 22 जून 2010

रामकुमार ओझा


बोधि प्रकाशन को जिन 'बड़ों' का आशीर्वाद मिला है उनमें से अग्रिम पंक्ति में आते हैं स्व रामकुमार ओझा।

बोधि की पहली किताब


बोधि प्रकाशन से प्रकाशित पहली किताब थी लछमन दास गिददा की - सूरज की सलीब (1995)

इसका कवर बनाया मेधातिथि जोशी ने। यह कवर स्क्रीन प्रिंटिंग से छापा गया था।

शनिवार, 12 जून 2010

पुस्तक पर्व पर हुई बहस के बारे में लक्ष्मी शर्मा का आलेख

बोधि पुस्तक पर्व पर चल रही चर्चाओं पर डॉक्टर लक्ष्मी शर्मा ने एक टिप्पणी की है। मित्रों के लिए यहाँ जस की तस रख रहा हूँ।

पिछले दिनों मायामृग ने पुस्तक पर्व के नाम पे जो दुष्कृत्य (?) किया उससे साहित्यिक जगत (??)में भारी उद्वेलन उत्पन्न हुआ और इस प्रकरण पर काफी गंभीर (???) वैचारिक (????) विमर्श(?????) भी हुआ।अब तो ठंडा भी पड़ने लगा है। फिर भी आप्त वाक्य या अंतिम टिप्पणी एक लतीफे के रूप में -एक पति था .पति जैसा( पति परम गुरु )पति। और एक पत्नी थी ,पत्नी जैसी (कार्येषु दासी, क्षमा धरित्री ...)पत्नी। तो दोनों साथ रहते, पत्नी खाना बनाती और पति नुक्स निकालते .(भई विवाह सिद्ध अधिकार जो ठहरा )एक दिन पत्नी ने अंडा बनाया पति ने प्लेट फैंक दी -किसने कहा अंडा बनाने को ?अगले दिन पत्नी ने आमलेट बनाया ,पति ने थप्पड़ जमाया -मूर्ख ,किसने कहा आमलेट बनाने को? अगले दिन पत्नी ने एक प्लेट में उबला अंडा और एक प्लेट में आमलेट बना के रखा, पति ने लात मारी -बेवकूफ ये भी नहीं जानती किस अंडे को उबालना होता है और किस का आमलेट बनाना होता है। जय हो .

शुक्रवार, 11 जून 2010

विष्णु नागर जी का आलेख


नई दुनिया साप्ताहिक के ६ जून २०१० के अंक में विष्णु नागर जी ने बोधि पुस्तक पर्व पर आलेख लिखा है। मित्रों के अवलोकन हेतु यहाँ अविकल प्रस्तुत है।

शुक्रवार, 4 जून 2010

बनास का नया अंक


उदयपुर के साथी पल्लव से प्राप्त सूचना के अनुसार बनास पत्रिका का नया अंक प्रकाशित हो गया है। इसकी छवि यहाँ देख सकते हैं और पत्रिका पल्लव जी से माँगा सकते हैं पल्लव जी का मोबाइल नंबर है -9414732258

बुधवार, 2 जून 2010

क्या कहूं

बोधि पुस्तक पर्व पर आपके उत्साह को देखकर मैं समझ नहीं पा रहा कि क्या कहूँ बस आपके स्नेह के प्रति नतमस्तक हूँ। भाई दुलाराम सहारण ने तो बिलकुल संकोच में ही डाल दिया है। जितनी तारीफ आप कर रहे हैं मुझे स्वीकार कर पाने में कठिनाई हो रही है। क्या कहूं, बस आपका प्यार ऐसे ही बना रहे। रास्ता है लम्बा भाई मंजिल है दूर, हिम्मत से बढ़ेंगे मिलके जरूर ----

मंगलवार, 1 जून 2010

श्री नंदकिशोर आचार्य का संबोधन


लोकार्पण पर संबोधन


श्री विजेंद्र

आभार

बोधि पुस्तक पर्व के प्रति आपके अपार स्नेह के लिए हार्दिक धन्यवाद। आपका स्नेह एवं सहयोग इसी प्रकार बना रहे। एक बार फिर से आपका आभार।

शुक्रवार, 28 मई 2010

लोकार्पण पर वक्ता

लोकार्पण के अवसर पर श्री विजेंद्र, नंदकिशोर आचार्य, डॉक्टर माधव हाडा, डॉक्टर लक्ष्मी शर्मा, नीरज मेहरा ने विचार व्यक्त किये। सञ्चालन अमित शर्मा और गोविन्द माथुर ने किया। मायामृग ने धन्यवाद दिया। प्रस्तुत हैं कुछ और फोटो-















मंगलवार, 25 मई 2010

lokarpan

बोधि पुस्तक पर्व के पहले सेट का लोकार्पण २३ मई को जयपुर में हुआ। दस किताबों के इस सेट को विजेंद्र, नंदकिशोर आचार्य, डॉक्टर माधव हाडा, डॉक्टर लक्ष्मी शर्मा ने उपस्थित साहित्यकारों, पाठकों, पत्रकारों के समक्ष जारी किया। १०० रुपये में दस किताबों के सेट का जबरदस्त स्वागत हुआ और लोकार्पण के समय ही २०० के करीब सेट बिक्री हो गए। अगले दिन सुबह १२ बजे तक और १०० सेट का आर्डर मिला। आज भी करीब २२५ सेट का नया आर्डर मिल गया है। फ़ोन आने का सिलसिला अभी जारी है। किताबों की इस तरह की बिक्री बोधि के लिए नया और शानदार अनुभव है। १००० सेट का पहला संस्करण एक सप्ताह में ही बिक्री हो जाने की सम्भावना है। हिंदी के पाठकों ने जो प्यार दर्शाया है, अभूतपूर्व है। आभार शब्द इसके लिए छोटा जान पड़ता है।

बुधवार, 19 मई 2010

बोधि पुस्तक पर्व

बोधि पुस्तक पर्व के तहत प्रकाशित पहले सेट की १० पुस्तकों का लोकार्पण रविवार २३ मई २०१० को शाम ४-३० बजे पिंकसिटी प्रेस क्लब, जयपुर में होगा। इस कार्यक्रम का आयोजन हिंदी पत्रिका अक्सर और प्रेस क्लब के सह्कार में किया जा रहा है। आप सभी मित्र सादर आमंत्रित हैं।

मंगलवार, 4 मई 2010

पुस्तक पर्व

पुस्तक पर्व पर मित्रों का जबरदस्त उत्साह देखकर जितनी ख़ुशी हो रही है उतना ही डर भी लग रहा है। डर इस बात का कि सबकी अपेक्षायों पर खरा उतर भी पाउँगा कि नहीं। जो भी हो इस योजना का मेरी उम्मीद से कहीं ज्यादा स्वागत हुआ है। सूचना बस इतनी कि इस सेट की ज्यादातर किताबें छप चुकी हैं। मई के अंतिम सप्ताह तक यह पहला सेट बिक्री के लिए उपलब्ध हो जायेगा। राजस्थानी के सेट के लिए तैयारी शुरू कर दी है।आपका उत्साह इसी प्रकार बना रहे, यही कामना है।

बुधवार, 21 अप्रैल 2010

पुस्तक पर्व का पहला सेट

बोधि प्रकाशन की योजना पुस्तक पर्व के तहत प्रकाशित होने वाले पहले सेट मैं शामिल पुस्तकों की सूचि इस प्रकार है:
कविता
१- भीगे डेनों वाला गरुण विजेंद्र
२- आकाश की जात बता भैया चंद्रकांत देवताले
३- जहाँ उजाले की एक रेखा खिंची है नन्द चतुर्वेदी
४- प्रपंच सार सुबोधिनी हेमंत शेष
कहानी
५- आठ कहानियां महीप सिंह
६- गुडnight इंडिया प्रमोद कुमार शर्मा
७- घग्घर नदी के टापू सुरेन्द्र सुन्दरम
अन्य
८- कुछ इधर की-कुछ उधर की हेतु भारद्वाज
९- जब समय दोहरा रहा हो इतिहास नासिरा शर्मा
१०- तारीख की खंजड़ी सत्यनारायण
पहला सेट मई १५ तक आने की सम्भावना है।

मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

किताब बचाने की खातिर

फेस बुक पर अभी एक नया ग्रुप देखा हिंदी किताबों के प्रेमियों का। बहुत अच्छा लगा।
किताबों को फिर से केंद्र में लाने के लिए बोधि प्रकाशन भी एक प्रयोग करने जा रहा है।
दस-दस किताबों के दस सेट 'बोधि पुस्तक-पर्व' के तहत प्रकाशित किये जायेंगे।
हर सेट की कीमत मात्र 100 रूपये होगी। यानि 80 से 100 पृष्ठ की प्रति पुस्तक केवल 10 रूपये में।
खास बात ये कि यह कीमत लागत से भी कम है। ये पुस्तकें गली-गली, मेले-मेले, नुक्कड़-चोराहे पर जन-जन के बीच विक्रय कि जाएँगी। इस योजना के बारे में अधिक जानना चाहें तो gmail.com पर या मेरे मोबाइल नंबर 98290-18087 पर संपर्क कर सकते हैं।

अखाड़े का उदास मुगदर: किताबें बचेंगी तो पढ़ना बचेगा, लिखना भी

अखाड़े का उदास मुगदर: किताबें बचेंगी तो पढ़ना बचेगा, लिखना भी

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

... कि जीवन ठहर न जाये

... कि जीवन ठहर न जाये
आओ कुछ करें
कुछ तो करें।
शहर के बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरियाँ झडकाएं
और बटोरें खट्टे-मीठे बेर।

चलो ना आज
रेल कि पटरी पर
दस्सी रख कर
गाड़ी का इंतजार करें।

कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी के नीचे आकर।

चलो तो-
झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकर और ठिकरियां
चुंगी के पास वाले जोहड़े में
ठिकरियों से पानी में थालियाँ बनायें
छोटी-बड़ी थालियाँ।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।

छप-छप पैर चलाकर
जोहड़े में अन्दर-बाहर खेलें।
या कि -
गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रंगकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डराएँ
कैसे फुदकता है मोटू सींग देखकर।

कितना कुछ पड़ा है करने को।
अख़बारों से फोटुएं काट-काट कर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में 'फस्स' से चलाना
और उकेरना
पंख, तितली या बिल्ली का मुंह।

चोर-सिपाही, पोषम पा भाई पोषम पा
खेले कितने दिन गुज़र गए...
चलो ना कुछ करें
कहीं से भी सही - शुरू तो करें
... कि जीवन ठहर न जाये
चलो कुछ करें.... ।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

गौ सेवक

आज सुबह बच्चे को स्कूल छोड़ कर आते समय देखा कि एक गाय घायल हालत मैं बीच सड़क पर पड़ी है। लोग साइड से उसे बिना देखे आ जा रहे हैं। मैंने गाड़ी रोकी और देखने लगा कि आखिर इसे हुआ क्या है। तभी एक न्यूज़ पेपर का फोटोग्राफर भी वहां रुका। उसने घायल गाय का फोटो लिया और संवेदनावश वेदना में सहायता का दावा करने वाली एक संस्था को फ़ोन कर दिया। जवाब मिला गाड़ी एक-डेढ़ घंटे में पहुंचेगी। जब उसने अच्छी-खासी नाराजगी जताई तब कहा- कोशिश करते हैं जल्दी आने की।
इस बीच काफी 'गौ भक्त' जमा हो गए। जो गाय हिल भी नहीं पा रही थी उसे चारा डालने की होड़ लग गई।
इस पूरी घटना पर सवाल केवल दो- पहला ये कि जानवरों की मदद के नाम पर अच्छा खासा अनुदान और चंदा बटोरने वाली इन संस्थाओं की जिम्मेदारी कैसे तय हो? दूसरा ये कि गौ भक्ति सिर्फ चारा डालने से ही होती है?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

मन

मन
खाली-खाली मन
मैंने तुम्हें याद किया
और
भर आया
मन

गुरुवार, 21 जनवरी 2010

देहदान के संदर्भ

कामरेड ज्योति बासु ने देहदान कर अपनी प्रतिबद्धता का अंतिम अध्याय हमारे सामने खोल दिया। इससे पहले जनकवि हरीश भादानी ने भी देहदान कर मिसाल कायम की। हनुमानगढ़ के कामरेड jaturam ने ऐसा ही उदाहरण प्रस्तुत किया। जयपुर के रामेश्वर शर्मा भी जाते जाते संसार को कुछ देकर ही गए।

ये प्रसंग हमारे लिए आदर्श तो प्रस्तुत करते हैं साथ ही कुछ सवाल भी खड़े करते हैं। इन्होने जिन मेडिकल स्टुडेंट्स के हित में अपनी देह दान में दी उनकी नैतिक स्थिति क्या है? डॉक्टर बनकर समाज में कदम रखने वाले ये स्टुडेंट्स इस देहदान की कीमत किस तरह चुकाते हैं ये आपसे छिपा नहीं है। नोबेल प्रोफ़शन कहे जाने वाले इस क्षेत्र में कितने नोबेल लोग बचे हैं?
आपकी राय इस मुद्दे पर आमंत्रित है कि क्या देहदान के हवाले से इन भावी doctors को किसी नैतिक बंधन में नहीं बांधा जाना चाहिए? क्या देहदान सशर्त होना चाहिए?
आपके विचार इस मुद्दे को गंभीर विमर्श का मुद्दा बनायेंगे, इस आशा के साथ....

रविवार, 17 जनवरी 2010

हरीश भादानी एवं मेजर रतन जांगिड पुरुस्कार विवाद

मेजर रतन जांगिड़ को अकादमी पुरुस्कार मिलने पर कुछ मित्रों ने अच्छा खासा विवाद खड़ा कर दिया है जो अवांछित ही है। हरीश भादानी हमेशा इस किस्म के विवादों से दूर ही रहे, उनके जाने के बाद उन्हें फोकस करके अनावश्यक बहस छेड़ना पूरी तरह बेमानी है।
मित्र दुष्यंत तो इस मुद्दे पर काफी आक्रामक जान पड़ते हैं। उनकी तरह से सोचें तो लगता है जैसे मेजर को पुरुस्कार मिलना कोई अपराधपूर्ण कृत्य है।
अगर आपको पुरुस्कार के निर्णय से कोई आपत्ति है तो अकादमी की कार्य शेली पर बात कीजिये, निर्णायकों की समझ पर सवाल उठाइए, पुरुस्कार पाने वाले को जबरन अपराधबोध में धकेलने की कोशिश करना गलत है। पुरुस्कार लौटाने की बिना मांगी सलाह देना तो कतई गैर जरूरी है।
एक बात यह भी कि एक ओर तो हम इस तरह के पुरुस्कारों के महत्व को ही नकारते हैं दूसरी तरफ इसे लेकर इतना हल्ला मचाते हैं। यह समझ से बाहर है। दुष्यंत मेजर को भला इन्सान बताते हैं लेकिन साथ ही लगे हाथ उनकी आर्मी ब्रांड पीने वालों के बहाने मेजर को भी लपेट लेते हैं। दुष्यंत की आक्रामकता कभी इतनी बेलगाम हो जाती है कि वे बिना किसी संदर्भ के हरिराम मीना पर भी हमला बोल देते हैं। वे कहते हैं कि उन्हें मीना के पुलिसिया रोब का भय नहीं है इसलिए अपनी टिप्पणी पर कायम हैं। मेरे मित्र क्या बताएँगे कि मीना ने किस-किस लेखक को अपने पुलिसिया रोब से भयभीत कर राय बदलवाई है। जब आप किसी के लेखन पर टिप्पणी कर रहे हैं तो उसकी नौकरी या आजीविका के साधन पर गैर जरूरी टीका न करें। रही बात भला या बुरा इन्सान होने की तो सच मानिये घर-घर मिटटी के चूल्हे हैं दुष्यंत जी। और हाँ, मैं किसी के साथ खाने और पीने वालों मैं नहीं हूँ इसलिए किसी खेमे से जोड़कर नहीं देखें।