सोमवार, 30 अगस्त 2010

जातिरहित समाज

अंजुले जी, जातीय गौरव और जातीय हीनता एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अपनी जाति के प्रति गर्व का भाव दूसरे की जाति के प्रति हीनता की दृष्टि पैदा करता है। मुझे एक मित्र से यह जानकर हैरानी हुई कि सवर्ण जातियों द्वारा कथित अवर्ण जातियों के प्रति भेदभाव के साथ साथ इन पिछड़ी कहे जाने वाली जातियों में भी आपस में काफी संस्तरण मौजूद है। यह भाव शायद सवर्णों की संगत का असर है।
जिस समस्या की ओर आपने संकेत किया है, वह तो प्रतीक मात्र ही है। राजस्थान में आज भी ऐसे गावं मौजूद हैं जहाँ खुद को ऊँचा कहने वाली जातियों की खुली दादागिरी चलती है। मेरे एक अध्यापक मित्र को गावं वालों केवल इस बात पर धमकी दे कि वह हमारे ही दूसरे मित्र के यहाँ चाय पीने क्यों चला गया, जो कि कथित निम्न जाति का है।
एक शोध के सिलसिले में कई गावों में जाने का अवसर मिला। जो अनुभव हुए, जो बातें सुनने को मिली वे किसी भी सभ्यता के मुह पर तमाचे की तरह ही लगी।
- एक गावं में स्कूल की पानी की टंकी को इसलिए तोड़कर दुबारा बनाया गया कि कुछ दलित बच्चे उस पर चदकर पतंग लूटते पाए गए।
- स्वाधीनता दिवस पर आयोजित कार्यक्रम के बाद अभिभावकों को चाय पिलाने का समय आया तो दलित अभिभावकों से कहा गया कि वे आक के पत्तों का दोना बनाकर उसमें ची ले लें।
- मेरा एक मित्र बड़े गर्व से बताता है कि उसके गावं में आज भी कोई दलित उसके घर के सामने जूते पहन कर नहीं निकल सकता।
-दलित के घर शादी हो तो पहला ढोल उसके घर पर बजता है।
- वह जब गावं में निकलता है, कोई दलित गली में चारपाई पर नहीं बैठा रह सकता।
और भी किस्से हैं, हम सबको शर्मिंदा करने के लिए।

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

बाज़ार नहीं बाजारवाद

मित्र विजय जी ने बाज़ार के नाम पर की जाने वाली आपतियों (जिसे उन्होंने स्यापा कहा है) पर आपत्ति की है। उनका मत है की ''बाज़ार'' शब्द को समझे बिना ही इसे कोसा जाता है।
यह ठीक है कि इसकी बेहतर विवेचना होनी चाहिए लेकिन मुझे लगता है इससे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि आपत्ति बाज़ार पर नहीं बाजारवाद पर और बाज़ार पर काबिज उन ताकतों पर की जाती है जो हर चीज की वयाख्यया बाज़ार और उपभोग के नजरिये से करती हैं। जिन ने माँ और बेटे के सम्बन्ध तक को mothers day में समेटने की कोशिश की है। यह कबीर वाला बाज़ार नहीं रहा जहाँ वे लुकाठी हाथ में लिए खड़े रहते थे। हालाँकि नफा-नुकसान छोड़कर अपना घर जलाने वालों को ही बाज़ार के मुकाबले अलग राह पर चलने के लायक माना गया।
हमारे समय का बाज़ार कहीं अधिक ताकतवर और खतरनाक है। यह सब्जी भाजी खरीदने से लेकर घर-परिवार में किस्से कैसा सम्बन्ध हो तक में दखल देने लगा है। मीडिया तक इस बाज़ार की चपेट में आ गया है। सुबह उठने से लेकर रत को सोने तक हम बाज़ार की निगाह में हैं। अब आप ही बताएं इस बाज़ार का स्यापा ना करें तो क्या करें?

पैमाना

गिरा हाथ से तो टूट गया पैमाना शीशे का
देर तक याद रहा उसमें बचा इक मय का कतरा...

बुधवार, 25 अगस्त 2010

आभार

आज जन्मदिन पर आप मित्रों के इतने सारे सन्देश पाकर में बहुत खुश हूँ। साथ ही आपके स्नेह के लिए ह्रदय से आभारी हूँ। आपकी दुआओं से अब तक अच्छी कट गई, बाकी भी इसी तरह सबके बीच रहते गुज़र जाये यही इच्छा है। आप सब मित्रों का धन्यवाद, आपने आपनी शुभकामनाओं से मुझे नया उत्साह दिया। पुनः आभार।

किचन में घुंघुरू

यह अच्छा हुआ कि आपको अपने पुराने घुंघुरू मिल गए, हाँ उन्हें मिलना तो किचन में ही था। आम तौर पर किचन में गुम होने वाले घुंघुरू, सितार, वायलिन या कि कत्थक के चरण हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं। मेरी कई दोस्त सदियों से उन्हें ढूंढ रही हैं। आपको मिल गए, अब उन्हें भी ढूँढने में मदद कीजिये....

जातिरहित समाज

GSM जी जातिरहित समाज की आकांक्षा इंसानियत में यकीन रखने वाले हर व्यक्ति का आदर्श है। खेद यह कि जिस जरूरत को बालकृष्ण भट्ट जी ने अपने समय में महसूस कर लिया, वह आज तक हमारे ''बुद्धिजीवियों '' को महसूस नहीं हुई वर्ना क्या कारण हैं कि आज भी इस मसले पर बहस हो रही है कि जातिगत गणना जरूरी है कि नहीं। नित नए जातीय संगठन जो बन रहे हैं, उनमें सिर्फ लठमार ही शामिल नहीं, बुद्धिजीवियों का भी उनमें पूरा हाथ-पैर रहता है।
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.

रविवार, 22 अगस्त 2010

भीतर का लोकतंत्र

मित्र, दरअसल हुआ यह है की लोकतंत्र को हमने ठीक से जाना ही नहीं। मोटे तौर पर हमने इसे एक वयवस्था मात्र समझ लिया जबकि लोकतंत्र एक समग्र जीवन शैली है। यह बाहर की वयवस्था नहीं, भीतर की वयवस्था है। हमारे भीतर लोकतंत्र का मूल उपजा ही नहीं। यह कदम-कदम पर दिखता है। क्या हम अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को उनकी बात कहने और हमसे असहमत होने की अनुमति देते हैं? क्या हम घरेलू निर्णयों में पूरे परिवार की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं? यदि हम शिक्षक हैं तो क्या हम क्लास में लोकतंत्र का पालन करते हैं? यदि हम यात्री हैं तो क्या हम रेल या बस में ''सबका समान अधिकार'' की लोकतान्त्रिक शैली वाला वयवहार करते हैं? अपने मित्रों के बीच भी हम कितने लोकतान्त्रिक होते हैं..उनकी बात सुनने, उनकी असहमति का आदर करने और उनके साथ बराबरी का वयवहार करने में क्या हमरा लोकतान्त्रिक रूप दिखता है?
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

कल फिर दिल्ली

कल रविवार को दिल्ली जा रहा हूँ। सोमवार दोपहर तक रुकने का कार्यक्रम है। कम समय में अधिक से अधिक मित्रों से मिलना चाहता हूँ। JNU और DU भी जाना चाहता हूँ। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भी एक कार्यक्रम है। कितने सारे काम हैं करने को, और वक़्त कितना कम मिला है हमें...

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

मीठेश निर्मोही जी

कल मित्र प्रेमचंद गाँधी के साथ बैंक में मीठेश निर्मोही जी से मिलने का सुअवसर मिला। वे मिठास से परिपूरण व्यक्ति हैं। मिलकर अच्छा लगा। कुछ चर्चा हुई, कुछ गपशप। छोटी-छोटी मुलाकातें कितनी जरूरी हैं जिंदगी के लिए, बड़ी-बड़ी बातों की बजाय....

सोमवार, 16 अगस्त 2010

बहाना

वजह ना सही
बहाना ही दे दो
मैं जीना चाहता हूँ
क्योंकि मरने की
ना कोई वजह है
ना बहाना
-मायामृग

बुधवार, 11 अगस्त 2010

धूमिल की कविता

हर तरफ धुआं है
हर तरफ कुहासा है
जो दांतों और दलदलों का दलाल है
वही देश भक्त है
अंधकार में सुरक्षित होने का नाम है -
तटस्थता। यहाँ
कायरता के चेहरे पर
सबसे ज़यादा रक्त है।
जिसके पास थाली है
हर भूखा आदमी
उसके लिए, सबसे भद्दी
गाली है।
हर तरफ कुआँ है
हर तरफ खाई है
यहाँ, सिर्फ, वह आदमी देश के करीब है
जो या तो मूर्ख है
या फिर गरीब है।
में सोचता रहा....

धूमिल की कविता 'पटकथा' के अंश
राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली
सातवाँ संस्करण 2009, पृष्ठ 105-106

सोमवार, 2 अगस्त 2010

रविवार, 1 अगस्त 2010

सुष्मिता जी का जाना

पिछले कुछ दिनों में घटनाओं की गति इतनी तेज रही कि समझ में आना मुश्किल हो गया कि खुश होऊं या उदास। दिल्ली में मित्रों से हुई मुलाकातों का जिक्र में पहले कर चुका हूँ। दिल्ली से लौटने के अगले ही दिन हमारी अत्यंत प्रिय मित्र सुष्मिता बेनर्जी का निधन हो गया। केवल 55 साल की आयु में उनका इस तरह अचानक बीच में से उठकर चल देना, विश्वास के काबिल नहीं लगता। दिल्ली जाते हुए उनसे मिला था। चाय के लिए कहा तो मैंने 'फिर कभी' पर टाल दिया। वह 'फिर कभी' अब कभी नहीं आएगा।
बोधि पुस्तक पर्व के लोकार्पण समारोह में वे सबसे पहले पहुंचने वालों में थीं। लोकार्पण के बाद मुझसे कहा, ''मायामृग, तुमने बहुत अच्छा काम किया है, मैं तुम्हें इसके लिए 'ट्रीट' दूँगी। यह ट्रीट अब हमेशा के के लिए due हो गई। इन किताबों के सेट को देखकर इतनी खुश हुईं कि जितनी वे बोधि से खुद की पुस्तक 'तितली, चिडिया और तुम' आने पर भी नहीं हुईं थीं।
शिक्षा, बाल मनोविज्ञान, साहित्य और समाज की जैसी समझ उन्हें थी, वह दुर्लभ है। हिंदी, बंगला और इंग्लिश भाषाओँ पर उनका पूरा अधिकार था। सबसे खास और न भूलने वाली एक बात है उनका स्नेहिल वयव्हार।