मंगलवार, 9 फ़रवरी 2010

किताब बचाने की खातिर

फेस बुक पर अभी एक नया ग्रुप देखा हिंदी किताबों के प्रेमियों का। बहुत अच्छा लगा।
किताबों को फिर से केंद्र में लाने के लिए बोधि प्रकाशन भी एक प्रयोग करने जा रहा है।
दस-दस किताबों के दस सेट 'बोधि पुस्तक-पर्व' के तहत प्रकाशित किये जायेंगे।
हर सेट की कीमत मात्र 100 रूपये होगी। यानि 80 से 100 पृष्ठ की प्रति पुस्तक केवल 10 रूपये में।
खास बात ये कि यह कीमत लागत से भी कम है। ये पुस्तकें गली-गली, मेले-मेले, नुक्कड़-चोराहे पर जन-जन के बीच विक्रय कि जाएँगी। इस योजना के बारे में अधिक जानना चाहें तो gmail.com पर या मेरे मोबाइल नंबर 98290-18087 पर संपर्क कर सकते हैं।

अखाड़े का उदास मुगदर: किताबें बचेंगी तो पढ़ना बचेगा, लिखना भी

अखाड़े का उदास मुगदर: किताबें बचेंगी तो पढ़ना बचेगा, लिखना भी

शनिवार, 6 फ़रवरी 2010

... कि जीवन ठहर न जाये

... कि जीवन ठहर न जाये
आओ कुछ करें
कुछ तो करें।
शहर के बाहर
उस मोडे के डेरे में
छुपकर बेरियाँ झडकाएं
और बटोरें खट्टे-मीठे बेर।

चलो ना आज
रेल कि पटरी पर
दस्सी रख कर
गाड़ी का इंतजार करें।

कितनी बड़ी हो जाती है दस्सी
गाड़ी के नीचे आकर।

चलो तो-
झोली में भर लें
छोटे-बड़े कंकर और ठिकरियां
चुंगी के पास वाले जोहड़े में
ठिकरियों से पानी में थालियाँ बनायें
छोटी-बड़ी थालियाँ।
थालियों में भर-भर सिंघाड़े निकालें।

छप-छप पैर चलाकर
जोहड़े में अन्दर-बाहर खेलें।
या कि -
गत्ते से काटें बड़े-बड़े सींग
काली स्याही में रंगकर
सींग लगाकर
उस मोटू को डराएँ
कैसे फुदकता है मोटू सींग देखकर।

कितना कुछ पड़ा है करने को।
अख़बारों से फोटुएं काट-काट कर
बड़े सारे गत्ते पर चिपकाना
धागे को स्याही में डुबोकर
कॉपी में 'फस्स' से चलाना
और उकेरना
पंख, तितली या बिल्ली का मुंह।

चोर-सिपाही, पोषम पा भाई पोषम पा
खेले कितने दिन गुज़र गए...
चलो ना कुछ करें
कहीं से भी सही - शुरू तो करें
... कि जीवन ठहर न जाये
चलो कुछ करें.... ।

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

गौ सेवक

आज सुबह बच्चे को स्कूल छोड़ कर आते समय देखा कि एक गाय घायल हालत मैं बीच सड़क पर पड़ी है। लोग साइड से उसे बिना देखे आ जा रहे हैं। मैंने गाड़ी रोकी और देखने लगा कि आखिर इसे हुआ क्या है। तभी एक न्यूज़ पेपर का फोटोग्राफर भी वहां रुका। उसने घायल गाय का फोटो लिया और संवेदनावश वेदना में सहायता का दावा करने वाली एक संस्था को फ़ोन कर दिया। जवाब मिला गाड़ी एक-डेढ़ घंटे में पहुंचेगी। जब उसने अच्छी-खासी नाराजगी जताई तब कहा- कोशिश करते हैं जल्दी आने की।
इस बीच काफी 'गौ भक्त' जमा हो गए। जो गाय हिल भी नहीं पा रही थी उसे चारा डालने की होड़ लग गई।
इस पूरी घटना पर सवाल केवल दो- पहला ये कि जानवरों की मदद के नाम पर अच्छा खासा अनुदान और चंदा बटोरने वाली इन संस्थाओं की जिम्मेदारी कैसे तय हो? दूसरा ये कि गौ भक्ति सिर्फ चारा डालने से ही होती है?

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

मन

मन
खाली-खाली मन
मैंने तुम्हें याद किया
और
भर आया
मन