मित्र विजय जी ने बाज़ार के नाम पर की जाने वाली आपतियों (जिसे उन्होंने स्यापा कहा है) पर आपत्ति की है। उनका मत है की ''बाज़ार'' शब्द को समझे बिना ही इसे कोसा जाता है।
यह ठीक है कि इसकी बेहतर विवेचना होनी चाहिए लेकिन मुझे लगता है इससे पहले यह साफ हो जाना चाहिए कि आपत्ति बाज़ार पर नहीं बाजारवाद पर और बाज़ार पर काबिज उन ताकतों पर की जाती है जो हर चीज की वयाख्यया बाज़ार और उपभोग के नजरिये से करती हैं। जिन ने माँ और बेटे के सम्बन्ध तक को mothers day में समेटने की कोशिश की है। यह कबीर वाला बाज़ार नहीं रहा जहाँ वे लुकाठी हाथ में लिए खड़े रहते थे। हालाँकि नफा-नुकसान छोड़कर अपना घर जलाने वालों को ही बाज़ार के मुकाबले अलग राह पर चलने के लायक माना गया।
हमारे समय का बाज़ार कहीं अधिक ताकतवर और खतरनाक है। यह सब्जी भाजी खरीदने से लेकर घर-परिवार में किस्से कैसा सम्बन्ध हो तक में दखल देने लगा है। मीडिया तक इस बाज़ार की चपेट में आ गया है। सुबह उठने से लेकर रत को सोने तक हम बाज़ार की निगाह में हैं। अब आप ही बताएं इस बाज़ार का स्यापा ना करें तो क्या करें?
शुक्रवार, 27 अगस्त 2010
बुधवार, 25 अगस्त 2010
आभार
आज जन्मदिन पर आप मित्रों के इतने सारे सन्देश पाकर में बहुत खुश हूँ। साथ ही आपके स्नेह के लिए ह्रदय से आभारी हूँ। आपकी दुआओं से अब तक अच्छी कट गई, बाकी भी इसी तरह सबके बीच रहते गुज़र जाये यही इच्छा है। आप सब मित्रों का धन्यवाद, आपने आपनी शुभकामनाओं से मुझे नया उत्साह दिया। पुनः आभार।
किचन में घुंघुरू
यह अच्छा हुआ कि आपको अपने पुराने घुंघुरू मिल गए, हाँ उन्हें मिलना तो किचन में ही था। आम तौर पर किचन में गुम होने वाले घुंघुरू, सितार, वायलिन या कि कत्थक के चरण हमेशा के लिए गुम हो जाते हैं। मेरी कई दोस्त सदियों से उन्हें ढूंढ रही हैं। आपको मिल गए, अब उन्हें भी ढूँढने में मदद कीजिये....
जातिरहित समाज
GSM जी जातिरहित समाज की आकांक्षा इंसानियत में यकीन रखने वाले हर व्यक्ति का आदर्श है। खेद यह कि जिस जरूरत को बालकृष्ण भट्ट जी ने अपने समय में महसूस कर लिया, वह आज तक हमारे ''बुद्धिजीवियों '' को महसूस नहीं हुई वर्ना क्या कारण हैं कि आज भी इस मसले पर बहस हो रही है कि जातिगत गणना जरूरी है कि नहीं। नित नए जातीय संगठन जो बन रहे हैं, उनमें सिर्फ लठमार ही शामिल नहीं, बुद्धिजीवियों का भी उनमें पूरा हाथ-पैर रहता है।
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.
क्यों आज भी हम लोग अंतरजातीय वैवाहिक संबंधों के पक्ष में खुलकर नहीं बोलते।
क्यों आज भी हमारे घरों में किसी कि जाति को लेकर बात होती है।
क्यों जातीय संगठनों के मंच से सम्मानित होने में हमें शर्म महसूस नहीं होती।
राजनीति में तो जाति हथियार है ही, ''बुद्धिवादियों'' ने भी इसका कम लाभ नहीं उठाया।
भट्ट जी ने इतने बरस पहले जो लिखा, स्थिति आज भी जस की तस है। इसीलिए मैंने टिप्पणी की कि ऐसा लगता है यह लेख २०१० में लिखा गया लगता है।
इस सम्बन्ध में चर्चा छेड़कर आपने महती कार्य किया है, साधुवाद.
रविवार, 22 अगस्त 2010
भीतर का लोकतंत्र
मित्र, दरअसल हुआ यह है की लोकतंत्र को हमने ठीक से जाना ही नहीं। मोटे तौर पर हमने इसे एक वयवस्था मात्र समझ लिया जबकि लोकतंत्र एक समग्र जीवन शैली है। यह बाहर की वयवस्था नहीं, भीतर की वयवस्था है। हमारे भीतर लोकतंत्र का मूल उपजा ही नहीं। यह कदम-कदम पर दिखता है। क्या हम अपनी पत्नी को, अपने बच्चों को उनकी बात कहने और हमसे असहमत होने की अनुमति देते हैं? क्या हम घरेलू निर्णयों में पूरे परिवार की भागीदारी सुनिश्चित करते हैं? यदि हम शिक्षक हैं तो क्या हम क्लास में लोकतंत्र का पालन करते हैं? यदि हम यात्री हैं तो क्या हम रेल या बस में ''सबका समान अधिकार'' की लोकतान्त्रिक शैली वाला वयवहार करते हैं? अपने मित्रों के बीच भी हम कितने लोकतान्त्रिक होते हैं..उनकी बात सुनने, उनकी असहमति का आदर करने और उनके साथ बराबरी का वयवहार करने में क्या हमरा लोकतान्त्रिक रूप दिखता है?
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।
फेसबुक पर भी हमारा वयवहार कितनी जल्दी असंतुलित हो जाता है। जरा किसी की बात पसंद नहीं आई ...तो बस ऐसे ऐसे शब्द इस्तेमाल करते हैं कि कहीं सामने होते तो खा ही जाते।
सभा-गोष्टी में dais नहीं छोड़ना भी इसी तरह की तानाशाही है। जब तक हम अपने कान-दिमाग खुले नहीं रखेंगे मुहँ खुला ही रहेगा और लोकतंत्र का जिक्र गाली जैसा ही प्रतीत होगा।
शनिवार, 21 अगस्त 2010
कल फिर दिल्ली
कल रविवार को दिल्ली जा रहा हूँ। सोमवार दोपहर तक रुकने का कार्यक्रम है। कम समय में अधिक से अधिक मित्रों से मिलना चाहता हूँ। JNU और DU भी जाना चाहता हूँ। इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में भी एक कार्यक्रम है। कितने सारे काम हैं करने को, और वक़्त कितना कम मिला है हमें...
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